Physics in Ancient India
 मुख्य पृष्ठ
 प्राक्कथन
 स्थिति स्थापकता संस्कार
 तेज : ऊर्जा
 वायु विमर्श
 गुरुत्व विमर्श
 भारतीय दर्शन और भौतिक विज्ञान
 दिक् परिमेय
 पार्थिव परिमेय
 कर्म
 वेग
 गुण
 गणितीय समीकरण
 प्राचीन भारत में वर्ण मापन
 द्रव्य
 अप् विमर्श
 पदार्थ
 भौतिक विज्ञान की गवेषणा
 काल परिमेयत्व
 'शब्द' : तरंग वृत्ति
 लेखक परिचय
दिक् परिमेय

"सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशांगुलम्"
ऋग्वेद, -पुरुष सूक्त-१, (६०००-४००० ई. पू.)

भूमिका (Introduction):
प्राचीन भारत में लम्बाई मापन पद्धतियों और उनके परिमाणों (Units) के अध्ययन हेतु हमने उपलब्ध प्राचीन साहित्य के साथ ही साथ पुरातात्त्विक गवेषणाओं को भी अपने अध्ययन का आधार बनाया है।
प्राप्त अभिलेख एवं ग्रन्थ सामग्री से यह विदित होता है कि प्राचीन भारत में लम्बाई का मापन वैदिक काल से कुशाण युग तक (२५०० ई०पू० से १०० ई०सन्) परिमाण (Unit) 'अंगुल' पर आधारित था। इसके महत्वपूर्ण गुणक क्रमश: पर्व = ६ अंगुल, धनुर्ग्रह = ४ अंगुल, वितस्ति = १२ अंगुल, दण्ड = ९६ अंगुल और योजन = ८००० दण्ड, के बराबर थे। उपर्युक्त अंगुल और दण्ड पृथ्वी के व्यासार्ध (त्रिज्या) से उसी प्रकार सम्बद्ध हैं जिस प्रकार अठारहवीं शताब्दी में दमशमलव पद्धति का लम्बाई परिमाण 'मीटर' पृथ्वी के व्यासार्ध से सम्बद्ध किया गया। इस परिणाम को आधुनिक वैज्ञानिक विश्व में बृहद् मान्यता प्राप्त है।
हड़प्पा-मोहनजोदड़ो पुरातत्व स्थलों से अन्वेषित सिंधुघाटी सभ्यता में लम्बाई का माप सैंधव 1 इंच एक मुष्टि अर्थात् चार अंगुल व्यास वाले गोले के आयतन के समतुल्य घन के कोर की माप के बराबर मात्र है।
पुनश्च ग्रीक एवं एटिक इंच 2 क्रमश: १ पर्व अर्थात् ३ अंगुल तथा ४ अंगुल कोर वाले घनों के आयतन के तुल्य गोलों के अर्धव्यासों के समतुल्य हैं।
लम्बाई के परिमाण और उनसे उद्भूत परिमाण(Units and Derived Units of Length)
प्राचीन काल में व्यवहार में प्रयुक्त होने वाले लम्बाई के परिमाण और उनसे उद्भूत परिमाण अधोलिखित है-
८ परमाणु = १ त्रसरेणु
८ त्रसरेणु = १ रेणु
८ रेणु = १ बालाग्र
८ लिक्ष= १ युक
८ युक= १ यव
८ यव= १ अंगुल
३ अंगुल= १ पर्व
४ अंगुल= १ मुष्टि
१२ अंगुल= १ वितस्ति
२१ अंगुल= १ रत्नि
२४ अंगुल= १ हस्त
९६ अंगुल= १ दण्ड
२००० दण्ड= १ क्रोश
४ क्रोश = १ योजन
४ हस्त= १ दण्ड
८००० दण्ड= १ योजन
दशमलव पद्धति (Decimal system) पर आधृत लम्बाई परिमाण (Unit Length) 'मीटर' (Metre) है। 'मीटर के गुणक और उपखण्ड अधोलिखित है-
१० मिलीमीटर= १ सेन्टीमीटर
१० सेन्टीमीटर= १ डेसीमीटर
१० डेसीमीटर= १ मीटर
१० मीटर= १ डेकामीटर
१० डेकामीटर= १ हेक्टोमीटर
१० हेक्टोमीटर= १ किलोमीटर
प्राचीन परिमाण 'दण्ड' और इसका पृथ्वी के परिमाप से सम्बन्ध(Ancient Unit Danda and Its Relation to size of Earth)
प्रकृत प्रसङ्ग में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त की प्रथम ऋचा पर ध्यान देना श्रेयस्कर होगा, क्योंकि इस ऋचा में 'अंगुल' पद द्रष्टव्य है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि 'पुरुष-सूक्त' पृथ्वी पर हुए क्रमिक विकास का वर्णन करता है। इस आधार पर यह भी कहा जाता है कि - यह क्रमिक विकास तभी सम्भव है जब हम पृथ्वी के साथ ही उसके चारों ओर व्याप्त वायुमण्डल को एक सम्पूर्ण निकाय या एक ही गोला (Sphere) समझें। प्रस्तुत 'ऋचा' में इस गोले को ही सांकेतिक रूप में 'पुरुष' शब्द से कहा गया है।
उपर्युक्त ऋचा में १००० x २००० x २००० अंगुल परिमाप को सांकेतिक रूप में 'पुरुष' द्वारा प्रकट किया गया है। 3 ऐसी परिस्थिति में पृथ्वी की परिधि अवश्य ही पुरुष के परिमाप की २४/२५ होनी चाहिये।
अत: पृथ्वी की परिधि
= २४/ २५ x १००० x २००० x २००० अंगुल
= २४/ २५ x १००० x २००० x २००० x १/९६ दण्ड
= ४ x १०
सूर्य सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी की त्रिज्या ८०० योजन है। 4
उपर्युक्त त्रिज्या (Radius) को 'दण्ड' परिमाण में परिवर्तन करने पर ६४,००,००० दण्ड होगी।
इस हेतु पृथ्वी की परिधि
= २ x ६४००,००० दण्ड
= ४ x १०दण्ड
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'ऋग्वेद' हो अथवा ज्योतिष दोनों ही परम्पराओं में पृथ्वी की परिधि का मान किक रूप से समान ही प्राप्त होता है।
लम्बाई का मैट्रिक परिमाप 'मीटर'(Metric Unit of Length 'metre')
१ अगस्त १७९३ को फ्रॉन्स में 'मीटर' को मूलरूप से परिभाषित किया गया। इस परिभाषा के अनुसार 'मीटर' पृथ्वी की परिधि के चतुर्थांश, जो भूमध्य रेखा को ड्रंकिर्क नामक स्थान से होकर उत्तरी ध्रुव से जोड़ता है, के एक लाखवें हिस्से के बराबर होता है। इसे आधुनिक वैज्ञानिक विश्व में व्यापक रूप से अपनाया गया है।
आधुनिक वैज्ञानिक युग में पृथ्वी की भूमध्य रेखीय परिधि का मापन किया गया है जो कि २४९०० मील है। मीटर प्रणाली में परिवर्तित करने पर इसका मान ४ x १०मीटर आता है।
अत: पृथ्वी की भूमध्य रेखीय परिधि के प्राचीन भारतीय और आधुनिक वैज्ञानिक मानों का आंकिक साम्य यह स्पष्ट करता है कि -
१ दण्ड = १ मीटर
अब चूंकि अंगुल दण्ड का ९६वां भाग है, इसलिये १ अंगुल = १००/९६ से.मी. = १.०४१६७ से.मी.
अत: अन्य उद्भूत परिमाण यथा
१ पर्व = ३ अंगुल =३.१२५ सेमी
१ मुष्टि = ४ अंगुल = ४.१६ सेमी = १.४६ इंच तथा
१ योजन = ८००० मीटर = ८ किमी = ५ मील
आयाम की सैन्धव, ग्रीक एवं एटिक इकाईयाँ(Indus, Greek and Attic Units of Length)
पुरातात्विक अन्वेषणों से प्राप्त सैन्धव, ग्रीक एवं एटिक 'इंच' की माप के आधार को प्राचीन भारतीय इकाईयों (Units) द्वारा सहजता से समझा जा सकता है।
सैंधव इंच (Indus Inch)
हड़प्पा और मोहन जोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त सैंधव इंच का मान १.३२ इंच (आधुनिक) के समतुल्य नापा गया है। दूसरे शब्दों में इसे ऐसे कहा जा सकता है कि 'यह ऐसे घन (Cube) की कोर का मान है जिसका आयतन १ 'मुष्टि' व्यास वाले गोले के आयतन के बराबर है।
एक मुष्टि व्यास के गोले का आयतन
= (४/३) π r
= (४/३) x π (४.१६/२)
= ३७.६९५ घन से.मी.
= (३.३५९२) से.मी.
= (१.३२)इंच
अत: १.३२ इंच कोर के घन का निर्माण किया जाय तो उसका आयतन एक मुष्टि व्यास वाले गोले के आयतन के बराबर होगा। इससे हमें ऋग्वेद और हड़प्पन सभ्यताओं के मध्य एक संभावित सम्बन्ध के संकेत प्राप्त होते हैं। भार की इकाईयों के निर्वचन के उपरान्त भी समान ही निष्कर्ष प्राप्त होता है।
ग्रीक इंच (Greek Inch)
ग्रीक इंच का मान ०.७६ इंच (आधुनिक) के समतुल्य माना गया है। यह मान एक 'पर्व' इकाई वाले घन (Cube) के समान आयतन वाले गोले का व्यासार्ध है। इसे अधोलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
माना एक गोले का आयतन जिसका व्यासार्थ त है, जो एक पर्व (३ अंगुल) लम्बाई की कोर वाले घन (Cube) के आयतन के बराबर है, अर्थात्
(४/३)(r)=(३.१२५ से.मी.)(चूंकि १ अंगुल = १.०४१६७ से.मी.)
अत:
r = १.९३८ से.मी. = ०.७६ इंच (आधुनिक)
एटिक इंच (Attic Inch)
इसी प्रकार एटिक इंच भी, एक मुष्टि कोर वाले घन (cube) के समतुल्य आयतन वाले गोले का व्यासार्ध है।
पुन: माना कि एक गोले का, जिसका व्यासार्ध r है, आयतन एक मुष्टि (चार अंगुल) लम्बाई की कोरवाले घन (cube) के आयतन के समतुल्य है। अर्थात् -
(४/३)(r)= (४.१६ से.मी.)
इसलिये r = २.५८ से.मी. = १.०१६ इंच (आधुनिक)
अत: सैंधव इंच, ग्रीक इंच और एटिक इंच की, भारतीय प्राचीन (आधुनिक) इकाई 'अंगुल' से व्युत्पत्ति निश्चित रूप से यह सिद्ध करती है कि ये समस्त प्रणालियाँ समान रूप से एक ही सर्वमान्य पद्धति से सम्बन्ध रखती हैं।
रेखाओं का मापन (Measurements of Lines)
दिक् मापन -
भोजदेव ने स्वरचित वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ 'समराङ्गण सूत्रधार' में दिक् के मापकों का विवरण दिया है। 5
इस कार्य हेतु प्रयुक्त साधनों (सूत्रों) को एक श्लोक में दिया गया है यथा (i) दृष्टि (normal vision), (ii) नृहस्त (division), (iii) मौञ्ज (rope/thread), (iv) कार्पासक (calipers), (v) अवलम्ब (plums line), (vi) काष्ठ (scale), (vii) सृष्ट्याख्य (Spherometer) तथा विलेख्य (graph)। इनका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है। साधारणत: लम्बाइयों का 'काष्ठ' (Scale) की सहायता से मापन किया जाता है। वर्तमान समय में उपलब्ध 'काष्ठ' अथवा स्क्रूगेज (screwgauge) की सहायता से लम्बाई ज्ञात करते हैं।
जैसे किसी स्केल को रेखा अ ब पर स्थापित कर दिया जाता है। तत्पश्चात् काष्ठ द्वारा रेखा के प्रथम और अन्तिम बिन्दुओं के मध्य के अन्तराल को सरल रेखा की लम्बाई के रूप में पढ़ लिया जाता है। प्रेक्षण की शुद्धता हेतु यह आवश्यक है कि दृष्टि काष्ठ के लम्बवत् हो, अन्यथा संदिग्ध विभाजन प्राप्त हो सकता है।
इस प्रक्रिया को चित्र क्र० १ में समझाया गया है।

चित्र सं - १

इसी प्रकार सुग्राही-काष्ठ (Screwgauge) से भी तार आदि का मापन करते हैं। देखें चित्र क्र०२
तंतु या मौञ्ज की सहायता से मापन(Measurement with the Help of Thread)
इस विधि में तन्तु या मौञ्ज को वक्र रेखा पर फैला देते हैं और उसके अनुसार वक्ररेखा के प्रथम और अन्तिम बिन्दुओं को चिह्नित कर लेते हैं। तत्पश्चात् चिह्नित बिन्दुओं के मध्य की दूरी को काष्ठ (scale) की सहायता से ज्ञात कर लेते हैं।

चित्र सं - २

नृहस्त की सहायता से मापन(Measurement with the Help of Divider)
नृहस्त (divider) के दोनों अग्रभागों को एक अल्प दूरी पर स्थिर करके उसके एक अग्रभाग को वक्ररेखा 'अ ब' के बिन्दु 'अ' पर प्रस्थापित करते हैं और दूसरे अग्रभाग को बिन्दु 'ब' की दिशा में रखते हैं। इसके बाद नृहस्त को वक्ररेखा पर बिन्दु 'ब' की दिशा में बढ़ाते हैं। इस क्रिया में बिन्दु 'ब' तक पहुंचने तक जितनी बार क्रम (Steps) पूरे करने पड़ते हैं, उनको नृहस्त के दोनों अग्रभागों के मध्य की लम्बाई से गुणा करने पर, रेखा की लम्बाई का मान प्राप्त हो जाता है।

चित्र सं - ३

कार्पासक की सहायता से मापन(Measurement with the Help of Calipers)
गोलाकार एवं खोखले बेलनाकार (Hollow cylindrical body) पिण्डों का आन्तरिक और बाह्य व्यास (Diameter) कार्पासक द्वारा ज्ञात किया जाता है। किसी ठोस गोले का बाह्य व्यास कार्पासक के दोनों सिरों के मध्य की उस दूरी के बराबर होता है जिस समय कार्पासक गोले को केवल सरकने भर की अनुमति प्रदान करता है।
बेलनाकार छिद्रों का आन्तरिक व्यास ज्ञात करने के लिये कार्पासक के सिरों को इतना फैलाते हैं जिससे उसके दोनों सिरे छिद्र की आन्तरिक सतह को स्पर्श करने लगे। देखें चित्र

चित्र सं - ४

गोलाकार आकृति की परिधि निम्न सूत्र द्वारा व्यक्त की जा सकती है-
परिधि (Circumfrence)= π x व्यास (Diameter)
प्राचीन साहित्य में कई स्थानों पर π का मान दिया गया है।
लीलावतीकार भास्कराचार्य ने भी π का व्याख्यान किया है, 6 उनका गणितीय अभिप्राय यह है-
π = २२/७ स्थूल मान,
एवं और अधिक सूक्ष्ममान = ३९२७/१२५० के तुल्य होता है।
क्षेत्रफल का मापन (Measurement of Area) 7
नियमित सतहों (Regular areas) जैसे वर्ग, आयत, त्रिभुज, वृत्त इत्यादि का क्षेत्रफल अधोलिखित गणितीय सूत्रों द्वारा ज्ञात किया जाता है-
वर्ग का क्षेत्रफल = (भुजा)
आयताकार सतह का क्षेत्रफल = लम्बाई x चौड़ाई
वृत्ताकार सतह का क्षेत्रफल = π x (त्रिज्या)
गोले की वक्रसतह का क्षेत्रफल = ४ π x (त्रिज्या)
बेलन की वक्रसतह का क्षेत्रफल = २ π x (त्रिज्या) x (लम्बाई)
उपर्युक्त सूत्र गणित विज्ञान पर आधारित अनेक प्राचीन भारतीय गणित ज्योतिष से सम्बद्ध साहित्यों में उल्लिखित है।
यदि सतह अनियमित (Irregular) है तब इसकी आकृति को विलेख्य (Graph paper) पर उचित अनुपात में लिख लिया जाता है और अनियमित सतह के अन्दर जितने वर्ग (Squares) होते हैं उनकी गणना करके क्षेत्रफल ज्ञात किया जाता है।
मौलिक वर्गो की गणना में, वर्ग के आधे अथवा आधे से अधिक क्षेत्रफल वाले वर्ग को इकाई वर्ग (Unit Square) के रूप में गिना जाता है और आधे से कम क्षेत्रफल वाले वर्ग को छोड़ दिया जाता है।

चित्र सं - ५

घनफल का मापन (The Measurement of Volume)
किसी पिण्ड द्वारा ग्रहण किया जाने वाला सम्पूर्ण स्थान (अवकाश) उसका आयतन (घनफल) कहलाता है। 8
नियमित पिण्डों का आयतन अधोलिखित सूत्रों द्वारा ज्ञात किया जाता है-
घन (cube) = भुजा (Side)
समकोणिक ठोस (Rectangular Solid)= लम्बाई x चौड़ाई x ऊँचाई
बेलनाकार छिद्र = π x (त्रिज्या)x (लम्बाई)
ठोस गोले का आयतन = (४ / ३) x π (त्रिज्या)
शंकु (cone) का आयतन =(π/३) x (त्रिज्या) x लम्बाई
लीलावतीकार ने भी वृत्त के क्षेत्रफल और गोले के आयतन के स्वरूप का विवेचन किया है।
(i) सृष्ट्याख्य (Spherometer)
सृष्ट्याख्य सैद्धान्तिक रूप से स्फेरोमीटर (Spherometer) है जो कि चित्र संख्या-७ में प्रदर्शित किया गया है। इस यंत्र का आधार तीन पदों (अ, ब, स) से युक्त होता है जैसा चित्र ७ में प्रदर्शित किया गया है। इसके केन्द्र में एक चौथा पाद 'म' होता है। बाह्य तीनों पादों की नोक एक दूसरे से समान दूरी पर होती है और केन्द्रीय पाद का अधोभाग अन्य पादों के समरूप होता है। केन्द्रीय पाद धातुनिर्मित वृत्ताकार चक्रिका (Metallic circular plate) से संलग्न होने के कारण इसे ऊपर-नीचे चलाया जा सकता है।

चित्र सं - ७

सर्व प्रथम चारो पादों को एक ही तल पर समरूप किया जाता है, इस समरूपता की प्रक्रिया को शीशे के समतल पर रख कर किया जा सकता है। तदनन्तर इसको उस गोलाकार सतह पर स्थापित किया जाता है जिसका वक्रतार्धव्यास ज्ञात करना होता है। इस स्थिति में केन्द्रीय पाद को घुमाकर ऊपर कर लेते हैं जैसा चित्र क्र. ७ में प्रदर्शित किया गया है। स्थापन प्रक्रिया में इस तथ्य का विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये कि यंत्र के चारों पाद गोलाकार सतह को स्पर्श मात्र कर रहे हों। चित्र संख्या ७ से स्पष्ट है कि केन्द्रीय पाद की किसी अन्य पाद से दूरी (a) है जो कि अमअ' की जीवा का आधा है। पुन: पाद 'म' के विस्थापन को, जो वृत्ताकार पटल को घुमाने से ऊपर चलता है, स्केल और पटल दोनों के अंशांकन की सहायता से मापा जाता है। यदि यह (म ब) दूरी 'h' है जो भारतीय गणित में शर (arrow) के रूप में मानी जाती है तो वक्रतार्धव्यास का मान अधोलिखित सूत्र की सहायता से ज्ञात किया जाता है-
R = a /२h + h/२
या २R = a /h + h
या व्यास = (जीवार्ध /शर) + शर
उपर्युक्त सूत्र का विवेचन भास्कराचार्य ने लीलावती में किया है। 9
****************************************
References
1
सत्यप्रकाश, (१९६०), प्राचीन भारत में रसायन का विकास - पृष्ठ ७४६
2
Willian Hallock and Herbert T wade; The Mac Millan and Company Ltd. (१९०६).Outlines of the Evolution of Weights and measures and the Metric System.
3
ऋग्वेद, -पुरुष सूक्त-१, (६०००-४००० ई. पू.)
"सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशांगुलम्"
4
सूर्यसिद्धान्त, मध्यमाधिकार,
"योजनानि शतान्यष्टौ भूकर्णोद्विगुणानि तु।
तद्वर्ग तो दशगुणात् पदं भूपरिधिर्भवेत्।।५९।।"
5
सूत्राष्टकं दृष्टि नृहस्त मौञ्ज कार्पासकं स्यादवलम्ब संज्ञम्।
काष्ठं च सृष्टयाख्यमतो विलेख्य मित्यष्ट सूत्राणि वदन्ति तज्ज्ञा:।।
-भोजदेव कृत समरांगण सूत्रधार (११०० ई.)
6
भास्कराचार्य, लीलावती, ४८, (१११४ ई.),
"व्यासे भनन्दांग्निहते विभक्ते खबाण सूर्यै: परिधि: ससूक्ष्म:।
द्वाविंशतिघ्नेचहृतेथ शैले स्थूलोऽथवास्याद्व्यवहारयोग्य:।।"
7
भास्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.), क्षेत्र व्यवहार:
8
भास्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.), घनफल
9
भास्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.),
"जीवार्ध वर्गेशरभक्तयुक्ते व्यासप्रमाणं प्रवदन्ति वृत्ते।।"
संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंञालय, भारत सरकार